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आस्था एवं अनास्था के द्वंद्व में फंसी गौ माता – भाग १ 

गौ के आर्थिक, स्वास्थ्य एवं आध्यात्मिक महत्व को आज के माहौल में तथ्य एवं तर्क की दृष्टि से समझना एवं समझा पाना ही इस द्वंद्व में हमें विजय दिला सकता है  
गौ सेवा भारत के समाज के लिए आस्था का विषय रही है. इसलिए गौ को माता भी कहा गया है. यह भी सच है की देश के विभिन्न क्षेत्र के निवासियों के गौसेवा के प्रति भावनात्मक सम्बन्ध है एवं इस दृष्टि से यह भारत के राष्ट्रीय एकता का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है. परन्तु भारतीय समाज के एक अन्य वर्ग की गौ के प्रति आस्था नहीं होने से या इस आस्था के वैज्ञानिक, सामाजिक एवं दार्शनिक आधार से अनभिज्ञ होने के कारण वे इस आस्था एवं भावना को अंध-विश्वास मानते हैं एवं इस कारण से उन्हें हेय एवं तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं. इस का एक परिणाम यह भी है की भारत की राजधानी जैसे नगरों में आप अनेक नस्ल के कुत्तों को आप बैडरूम में रख सकते हैं परन्तु आपको गौ माता को नगर के आवासीय क्षेत्र में रहने या पूजा तक के लिए गेट के अंदर लाने की अनुमति नहीं है. इन महानगरों में गौ कूड़े-कचरों के जगह-जगह पड़े ढेर में अपना आहार ढूंढते एवं मजबूरी में पॉलिथीन खाते हुए अवश्य दिख जाएंगी.  आस्था पक्ष इसकी प्रतिक्रिया  में वैज्ञानिक, सामाजिक एवं दार्शनिक  तथ्य और तर्क रखने के बजाय इसे राजनैतिक विरोध मानती है तथा अपने कथनी एवं करनी के अंतर एवं जीवनशैली की अनेक विसंगतियों को छिपाने के लिए, जिनके कारण गौधन का ह्रास एवं विनाश हो रहा है, इस विरोध का राजनीतिकरण कर बैठती है. कुछ समर्पित लोग पूरी निष्ठा से बूढी, लाचार, बीमार, घायल गौ माता की सेवा करने में दिन-रात सेवा करते हैं. अपनी जान पर खेलकर गौ-तस्करों से उनकी रक्षा भी करते हैं. परन्तु आस्था और अनास्था की राजनीतिक लड़ाई में उनका योगदान कहीं खो जाता है. वे भी थक हार कर निराश होकर सारा तमाशा देखते रहते हैं. 

इसके परिणामस्वरुप दोनों पक्षों द्वारा गौ माता की अपेक्षा हो रही है एवं उनके अधिकारों का भारी हनन हो रहा है. इस प्रस्तावना पत्र का उद्देश्य गौ की वैज्ञानिक, सामाजिक एवं दार्शनिक दृष्टि से उपयोगिता, महत्व एवं प्रभाव के सत्य को तथ्यों एवं तर्कों द्वारा उजागर करना है एवं गौ सेवा, संरक्षण एवं संवर्धन सम्बंधित अनेक प्रकार की भ्रांतियों को दूर करना है. जिसे वेदों में  गावो विश्वस्य मातरः कहा है. 
१. ऐतिहासिक दृष्टि से गौ का महत्त्व 
(क)धेनुरूपिणी भूदेवी को गौ या गैया (Gaia) के नाम से पृथ्वी में जन्में  समस्त जीव-जन्तुओं  की  माता मानने का भाव सिर्फ भारतीय वांग्मय तक सीमित नहीं है. उदहारण के तौर पर ग्रीक एवं अवेस्तन वांग्मय में गैया का उद्धरण है जिसकी पुष्टि आधुनिक वैज्ञानिक भी करते हैं. 
 
“In Greek mythology, Gaia (/ˈɡ.ə/ or /ˈɡ.ə/ from Ancient Greek Γαῖα, a poetical form of Γῆ , “land” or “earth”), also spelled Gaea, is the personification of the Earth and one of the Greek primordial deities. Gaia is the ancestral mother of all life: the primal Mother Earth goddess.” 
 
” It, however, could be related to the Avestan word gaiia “life” (cf. gaēθā “[material] world, totality of creatures” and gaēθiia “belonging to, residing in the worldly or material sphere, material”) or perhaps to Avestan gairi “mountain”. (1)
 

– विकिपीडिया से उद्धृत
 
(ख) उपरोक्त दृष्टि से गौ की सेवा से तात्पर्य समस्त जीव जंतुओं की सेवा है एवं परस्पर सम्बन्ध का बोध है. आज जब पृथ्वी के जैविक विविधता की भारी क्षति हो रही है एवं अनेक जीव-जंतुओं के जाति-प्रजाति का विलोप हो रहा है, गौ माता की सेवा का भाव आज और भी प्रासंगिक हो गया है. इसके लिए आवश्यक है कि गौ माता एवं उनके सभी संतान जीव-जंतुओं के हैबिटैट को संरक्षित एवं संवर्धित किया जाए. इसके लिए आवश्यक है की धरती का दो-तिहाई भू-भाग गौ एवं अन्य जीव-जंतुओं के लिए आरक्षित किया जाए. इसमें वन क्षेत्र, चरागाह एवं जलाशय शामिल हैं. 
 
(ग) भारत के ७०० से कुछ अधिक जिलों में गौ एवं घरेलु पशु जैसे अश्व, गज, ऊँट, बकरी, कुत्ते, भेद, गदहे, खच्चर इत्यादि के लिए संविधान में संशोधन के आधार पर हर जिले में शुरुआत में एक-तिहाई भाग और क्रमशः तीन वर्षों में दो-तिहाई भू-भाग को वन एवं चरागाह के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए. भारत के पड़ोस में छोटे से देश भूटान ने ६०% भूभाग वन क्षेत्र वहां के संविधान में आरक्षित है. 
 
“The Government itself pledges to protect, conserve and improve the pristine environment and safeguard the biodiversity of the country; prevent pollution and ecological degradation; secure ecologically balanced sustainable development while promoting justifiable economic and social development; and ensure a safe and healthy environment. To this end, it promises that a minimum of 60 percent of Bhutan’s total land shall be maintained as forest for all time.” – Wikipedia (2)
 
(घ) गौ आधारित कृषि एवं कृषि आधारित ग्राम उद्योग जिसमें गौ एवं अन्य पशुओं के परस्पर सहयोग से भारत के गाँवों का स्वावलम्बन सदियों से सुनिश्चित रहा है और इसी आधार पर उत्पन्न भौतिक उत्कर्ष से भारत को सोने की चिड़िया की संज्ञा दी गयी एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष से विश्व गुरु के दायित्व से सम्मानित किया गया.
 
२. वर्त्तमान में गौ आधारित व्यवस्था के ह्रास के मौलिक कारण 
 
(च) आज से करीब तीन सौ वर्ष पूर्व यूरोप में जनित औद्योगिक क्रान्ति से प्राप्त भौतिक उत्कर्ष का प्रभाव पूरे विश्व में रहा है. परन्तु मानव इतिहास के इस अल्पायु कालखंड में ही इससे होने वाले भारी सामाजिक, मानसिक एवं पर्यावरण क्षति के दुष्परिणाम भी हमारे सामने प्रत्यक्ष हैं. इसमें अब दूर दूर तक संशय नहीं है की यदि इस विनाश लीला को शीघ्रतम नहीं रोका गया तो अनेक जीव-जंतुओं सहित मानव जाति का भी विलोप निश्चित है. इस अल्पकालीन भौतिक उत्कर्ष एवं विनाश का प्रमुख कारण प्रकृति के दो मौलिक सिद्धांतों का उल्लंघन है. 
 
इसमें पहला है कि किसी भी वस्तु को व्यवहार में लाने से पहले उसे तीन प्रकार के परीक्षण से गुजरना पड़ता है. भौतिक वैज्ञानिक दृष्टि से वस्तु की उपयोगिता, वैद्य यानी स्वास्थ्य वैज्ञानिक की दृष्टि से वस्तु का स्वास्थ्य पर प्रभाव, एवं दार्शनिक की दृष्टि से वस्तु का समाज पर प्रभाव। उदहारण के तौर पर वर्त्तमान समय में भारी उपयोग में लाये जाने वाले मोबाइल फ़ोन, केमिकल फ़र्टिलाइज़र, पेस्टिसाइड एवं कृत्रिम बीज, ट्रेक्टर, वाटर-फ्लश टॉयलेट, टेलीविज़न, प्लास्टिक, पक्के सीमेंट के मकान, पक्के अलकतरा एवं कंक्रीट से बनी सड़क, पाइप्ड वाटर सप्लाई, मोटर कार, एयर-कंडीशनर, फ्रिज, वाशिंग मशीन इत्यादि वस्तुओं के व्यापक स्वास्थ्य एवं सामाजिक दुष्परिणामों को देखते हुए उनके उपयोग की अनुमति नहीं दी जाती. दुर्भाग्य से यही वस्तुएं गौ आधारित कृषि एवं कृषि आधारित उद्योग से उपार्जित वस्तुओं का विकल्प बनती हैं. यह सब इस दुसरे मौलिक सिद्धांत के उल्लंघन के बिना संभव नहीं हो सकता. 
 
यह दूसरा मौलिक सिद्धांत है मल और फल का. इस सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी के सभी जीव-जंतुओं का मल पृथ्वी के मिटटी के सूक्ष्म जीवाणुओं का फल होता है. उसी तरह मानव सहित जीव जंतुओं का फल इन्हीं सूक्ष्म जीवाणुओं की उर्वरा शक्ति से उपार्जित होता है – जैसे पेड़ के फल एवं कांड-मूल, पृथ्वी के सतह पर संचित नदी, तालाब और कुँए का जल, जंगल में गिरी सूखी टहनियां एवं सूखे पेड़ों की लकड़ी, पृथ्वी के सतह पर उलीचा हुआ खनिज, कोयला एवं खनिज तेल – जो सब स्वेच्छा से पृथ्वी जिसे हम धरती माता भी कहते हैं, वह देती हैं. पर जिस तरह एक बच्चे को जन्म देने वाली मां अपने बच्चे को स्वेच्छा से और अपार ममता एवं स्नेह से दूध पिलाती है, जो उसके शरीर में स्वाभाविक रूप से उपार्जित होता है. परन्तु जिस तरह से एक बच्चा भी स्वाभाविक रूप से माँ का दूध ही पीता है, लोभ, लालच या व्यसन से दुष्प्रेरित होकर बलात्कारपूर्वक अपनी मां का खून नहीं पीने लगता या यदि उसके दांत भी निकलने लगे हो तो भी उसके स्तन का मांस नोच कर नहीं खाता. 
 
उसी तरह आज अनेक जीव-जंतुओं के साथ मानव के स्वयं के सर्वमूल हो रहे विनाश का एक बड़ा कारण है कि वह उसका भरण-पोषण करने वाली धरती माता के गर्भ में छेद कर बलात्कारपूर्वक कोयला, खनिज तेल, खनिज एवं जल निकालता है, जो पृथ्वी का रक्त, मज्जा इत्यादि है. वह धरती माता का ही नहीं सभी पांच महाभूतों – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश को प्रदूषित कर उनका विलोप करता है. इस तरह बलात्कारपूर्वक प्राप्त किये गए संसाधनों से वह अल्पकाल के लिए और कुछ आसुरी एवं मौकापरस्त वर्ग के लिए उन्मादी भौतिक उत्कर्ष अवश्य प्राप्त करता है और अन्य जन साधारण के संसाधनों को छीन कर या उन्हें नष्ट कर उन्हें बहुत धूर्तता एवं कुटिलता से अपने दुष्चक्र में अवश्य फंसा लेता है. पर जैसा की आध्यात्मिक ऋषि संकेत करते हैं, उसे गाढ़ी नींद दुर्लभ हो जाती है. इससे वह मानसिक रूप से विक्षिप्त होता जाता है और अंततः अपने इन दुष्कर्मों का फल भोगता ही है. 
 
फिर आप और हम जैसे सतजनों का इससे क्या लेना देना? भोगने दें हम उन दुष्कर्मिओं को उनके पाप की सजा. धरती माता के साथ हो रहे बलात्कार को हम क्यों न उसी तरह चुप-चाप देखते रहें जैसे भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य एवं गुरु कृपाचार्य जैसे महानुभाव महाभारत काल में द्रौपदी का चीर-हरण होते हुए देखते रहे?
 
क्रमशः 
आस्था एवं अनास्था के द्वंद्व में फंसी गौ माता – भाग २
३. समाधान एवं समुत्कर्ष 
Reference:
(1) Gaia https://en.wikipedia.org/wiki/Gaia
The Gaia hypothesis (/ˈɡ.ə/ GYE-ə/ˈɡ.ə/ GAY-ə), also known as the Gaia theory or the Gaia principle, proposes that living organisms interact with their  inorganic  surroundings on Earth to form a synergistic and self-regulating, complex system that helps to maintain and perpetuate the conditions for life on the planet.

The hypothesis was formulated by the chemist James Lovelock and co-developed by the microbiologist Lynn Margulis in the 1970s. Lovelock named the idea after Gaia, the primordial goddess who personified the Earth in Greek mythology. In 2006, the  Geological Society of London awarded Lovelock the Wollaston Medal in part for his work on the Gaia hypothesis.

Topics related to the hypothesis include how the biosphere and the evolution of organisms affect the stability of global temperature, salinity of seawater, atmospheric oxygen levels, the maintenance of a hydrosphere of liquid water and other environmental variables that affect the habitability of Earth.

(2) Constitution of Bhutan https://en.wikipedia.org/wiki/Constitution_of_Bhutan