“कोरोना संकट के बाद भी दुनिया में जो स्थिति बन रही है उसे भी हम देख रहे हैं। जब इन दोनों कालखंडों को भारत के नजरिए से देखते हैं तो लगता है 21 सदी भारत का हो यह हमारा सपना ही नहीं, हम सबक की जिम्मेदारी है। लेकिन इसका मार्ग क्या होगा? विश्व की आज की स्थिति हमें सिखाती है कि इसका मार्ग एक ही, आत्मनिर्भर भारत।हमारे यहां शास्त्रों में कहा गया है एश: पंथ: यानी यही रास्ता है- आत्मनिर्भर भारत। एक राष्ट्र के रूप में आज हम बहुत अहम मोड़ पर खड़े हैं। इतनी बड़ी आपदा भारत के लिए एक संकेत लेकर आई है, संदेश लेकर आई है, एक अवसर लेकर आई है।”
– मंगलवार १२ मई २०२० को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राष्ट्र के नाम सम्बोधन
(लोक सभा चुनाव 2014 के सन्दर्भ में मई २०१३ लिखा गया यह पत्र. पहले सुधींद्र कुलकर्णी जी और उनके माध्यम से डॉ विनय सहस्रबुद्धे से इसपर चर्चा हुयी थी. लेकिन इसके कुछ महीनों बाद ही नरेंद्र मोदी के विदेशपरस्त एवं पूँजीपरस्त न्यू इंडिया के आँखों में धूल झोंकने वाली आंधी में यह भाजपा के विचारकों के आँखों से ओझल हो गया. अब ७ वर्ष बाद कोरोनावायरस महामारी और उसके पश्चात लॉकडाउन के ५४वें दिन आज १६ मई २०२० को दूसरी बार प्रधानमंत्री बनें मोदी जी को शायद यह विचार फिर से अच्छे लगें। इसी उम्मीद में आप सबकी समीक्षा के लिए यह दृष्टि पत्र फिर से प्रस्तुत कर रहा हूँ.)
सभ्यता की चुनौती और समाधान
प्रस्तावना
“(उपभोक्तावादी ) सभ्यता एक तरह का रोग है. इस सभ्यता के मोह में फंसे हुए लोग उसके खिलाफ नहीं लिखेंगे, उलटे उसको सहारा मिले ऐसी ही बातें और दलीलें ढूंढ निकालेंगे। यह वे जान-बूझ कर करते हैं ऐसा भी नहीं है। वे जो लिखते हैं, उसे खुद सच मानते हैं। नींद में आदमी जो सपना देखता है, उसे वह सही मानता है। जब उसकी नींद खुलती है तभी उसे अपनी गलती मालूम होती है। ऐसी ही दशा सभ्यता के मोह में फंसे हुए आदमी की होती है. हम जो बातें पढ़ते हैं वे सभ्यता की हिमायत करनेवालों की लिखी बातें होती हैं। उनमें बहुत होशियार और भले आदमी हैं। उनके लेखों से हम चौंधियां जाते हैं। यों एक के बाद दूसरा आदमी उसमे फंसता जाता है…
…हिंदुस्तान अंग्रेजों ने लिया सो बात नहीं है, बल्कि हमने उन्हें दिया है। …मेरी पक्की राय है, कि हिंदुस्तान अंग्रेजों से नहीं, बल्कि आज की (उपभोक्ता वादी)सभ्यता से कुचला जा रहा है, उसकी चपेट में फंस गया है। यह सभ्यता ऐसी है कि अगर हम धीरज धर कर बैठे रहेंगे , तो सभ्यता की चपेट में आये हुए लोग खुद की जलाई हुई आग में जल मरेंगे। यह शैतानी सभ्यता है. यह सभ्यता दूसरों का नाश करने वाली और खुद नाशवान है. इससे दूर रहना चाहिए और इसीलिए ब्रिटिश और दूसरी पार्लियामेंट बेकार हो गयी हैं। ब्रिटिश पार्लियामेंट अँगरेज़ प्रजा की गुलामी की निशानी है, यह पक्की बात है.”
– मोहनदास गांधी,हिन्द स्वराज्य ,1909
हिन्द स्वराज्य – 1909 से 2013 तक
गाँधी के इन विचारों के सौ बरस बाद, आज के भारत में ये दोनों बातें सत्य प्रमाणित होती हैं। एक ओर आज का विचारशील जन मानस से लेकर स्थापित विश्व स्तरीय संस्था एवं विशेषज्ञ भी इस (उपभोक्तावादी) सभ्यता के प्रकोप से स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के नष्ट होने की पुष्टि करते हैं।
दूसरी ओर (उपभोक्तावादी) सभ्यता के मोह में जकड़े हुए कई होशियार एवं भले लोग इसके हिमायत में नयी बातें और दलीलें ढूँढने में दिन-रात लगे हुए हैं। इसकी डूबती नैया को सहारा देने के लिए वह नए नए हथकंडे अपनाते हैं जिसमें लोगों को उनके जल, जंगल और ज़मीन से बेदखल करने के साथ साथ उनके मानस को प्रदूषित करने के लिए प्रचार, विज्ञापन, स्कूल एडुकेशन, शोध संस्थान, टेलीविज़न और प्रिंट माध्यम से प्रसारित समाचार का सहारा लिया जा रहा है.
यह भी गौर करने योग्य है कि (उपभोक्तावादी) सभ्यता के प्रारम्भ से बीसवी सदी के अंत तक उसमे लोगों को एक रचनात्मक ऊर्जा भी महसूस होती थी जो लोगों को उसकी ओर स्वतः आकर्षित करती थी। यह चर्चा का विषय हो सकता है कि हर तरह के नशा रोग में – चाहे वो अफीम का हो या शराब का – प्रारम्भ में ऐसा होता है. परन्तु नशे में लिप्त लोगों को इसके रोग होने का तो तभी पता चलता है जब उस नशा का असर उनके शरीर और मानस को दुर्बल और जड़ करने लगे. इक्कीसवी सदी के दुसरे दशक तक यह प्रमाणित हो चूका है की अब इस (उपभोक्तावादी) सभ्यता में सिर्फ विध्वंसात्मक ऊर्जा ही शेष रह गयी है. इस सच्चाई को छुपाना इस सभ्यता के मोह में लिप्त होशियार और भले लोगों के लिए अत्यंत कठिन होता जा रहा है.
जब व्यक्ति ऐसे बुरे आदत में लिप्त हो जाता था तो समाज उसे सुधारने का काम करता था। परन्तु जब बुरे आदत में लिप्त होने को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का चोगा पहना दिया जाए और इस क्रम में जब समाज का एक बड़ा हिस्सा इस सभ्यता रुपी बुरी आदत में लिप्त होने लगे तो उसका क्या हस्र होगा ?
पृष्ठभूमि
अन्तः योग हमारे आतंरिक वातावरण – शरीर एवं मन – को तभी तक स्वस्थ रख सकता है जब बाह्य वातावरण शुद्ध एवं निरोग हो. आज हवा, पानी, खान-पान एवं अनेक आहार जो हमारी इन्द्रियां ग्रहण करती हैं जैसे कि अखबार, टेलीविज़न रोग ग्रस्त हैं. इस परिप्रेक्ष्य में संतुलित एवं समुचित विकाश की आवश्यकता है. इस विषय की दृष्टि पत्र पर आप सबकी टिपण्णी चाहूंगा.
वर्तमान परिस्थितिओं को ध्यान में रखते हुए विकास की नयी दिशा निर्धारित करने की आवश्यकता है. ऐसा दो प्रमुख कारणों से है.
एक तरफ आज के असंतुलित एवं अनुचित विकास के परिणाम से स्वतंत्रता के सात दशकों के बाद भी देश के अधिकाँश लोग गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं. आज विभिन्न सरकारी एवं निष्पक्ष आंकडो के अनुसार औसतन 50% लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं. इतना ही नहीं, महंगाई, प्रदुषण और कुपोषण के दौर में यह अनुपात बढ़ता जा रहा है. हालात ऐसे हैं कि तथाकथित समृद्ध परिवार के बच्चे भी कुपोषण का शिकार हो रहे हैं.
दूसरी ओर पाश्चात्य के अंधाधुंध और अधकचरे अनुकरण से मूल्यों का बिखराव हो रहा है. शिक्षा स्तर में भी तेजी से गिरावट आ रही है. इस कारण से हम सही ढंग से अपने जीवन की प्राथमिकता नहीं तय कर पा रहे हैं. शुद्ध एवं पौष्टिक आहार, स्वच्छ एवं स्वास्थवर्धक वातावरण तथा बच्चों की सर्वोच्च शिक्षा के ऊपर खर्च करने की बजाय हम ऊपरी आडम्बर एवं गैर जरूरत की वस्तुएँ जैसे आलीशान मकान, मोटर कार, मोबाइल फोन, टेलीविजन पर अनुचित व्यय कर रहे हैं.
नयी दृष्टिकोण, नया दौर
- ग्राम पंचायत एवं जनपदों को सशक्त एवं स्व शाषित बनाने के सभी प्रावधान किये जाएँ. ग्रामीण क्षेत्रों की पिछले कई दशकों से हो रही उपेक्षा से लोगों ने जीविका एवं जीवन के साधनों की खोज में शहरों में पलायन किया है. इस विचित्र क्रम को रोकने के लिए एक ऐसे राष्ट्रीय अभियान की आवश्यकता है जिसके अंतर्गत एक ओर खाद्य पदार्थों की महंगाई को रोका जाए, वहीँ दूसरी ओर किसानों को उनके उपज – अनाज, फल, सब्जी, दूध इत्यादि – का पूरा मूल्य मिले. यह मूल्य कृषि क्षेत्र में बढते व्यय और अनेक विपदाओं को ध्यान में रखते हुए आज के मूल्यांकन से ३ से ४ गुना अधिक होनी चाहिए.
- इससे आने वाली ग्रामीण क्षेत्रों की समृद्धि और खुशहाली से स्वतः शहर में पलायन करने वाले अधिकाँश लोग अपने अपने क्षेत्रों में वापस लौटने का आकर्षण बढ़ेगा. एक तरफ ग्राम का समुचित विकास होगा, दूसरी ओर शहर में जनसँख्या संतुलित होगी. ग्राम के समुचित विकास की ओर शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता है. लोगों की आकांक्षाओं एवं आवश्यकता के अनुसार गौ, कृषि एवं ऋषि पर आधारित हमारी परंपरागत व्यवस्था को एक आधुनिक सन्दर्भ में पुनर्स्थापित किया जाना चाहिए.
- शहरों/जनपदों की भविष्य की योजना इस नए जनसंख्या के आधार पर किया जाना चाहिए. इसके साथ साथ शहर की सीमा में भी संतुलन की आवश्यकता है. इस नए दृष्टिकोण में किसी भी जनपद का व्यास ३ से ४ किलोमीटर से अधिक नहीं होना चाहिए. हर जनपद के चारों ओर २ से ३ किलोमीटर गायों के चरागाह एवं फल-सब्जी उगाने की व्यवस्था होना चाहिए.
- प्रत्येक ग्राम पंचायत एवं जनपद यथा संभव सौर उर्जा एवं अन्य अक्षय उर्जा स्त्रोतों से संचालित होनी चाहिए. ऐसा करने से वन एवं जल संसाधनों का संरक्षण होगा जिससे संतुलित एवं समुचित विकास को बल मिलेगा.
- प्रत्येक ग्राम पंचायत एवं जनपद के आतंरिक यातायात के लिए प्रदुषण फैलाने वाली मोटर युक्त वाहनों का केवल आपातकालीन परिस्थितिओं में उपयोग किया जाए. आतंरिक यातायात के लिए पैदल चलने एवं साइकिल से चलने को बढ़ावा दिया जाए, रिकशा एवं बिजली से चलने वाली अत्यंत हलके वाहनों का उपयोग किया जाए.
- जैसे जैसे जनपदों की जनसँख्या संतुलित होगी, वहाँ के घरों से उपार्जित कूरे -कचड़े और मल-मूत्र से दूषित जल का भी समुचित निवारण किया जा सकेगा. घरों के अंदर ही रसोई में उपार्जित जैविक अवशेषों से प्राकृतिक खाद बनाया जा सकेगा. आधुनिक तकनीक की मदद से अन्य अवशेषों से ऊर्जा का उत्पादन भी किया जा सकेगा.
- ऐसी व्यवस्था कायम की जायेगी जिसके अंतर्गत ग्राम एवं जनपदों में रहने वाले अधिकतम लोगों के शिक्षा एवं जीविकोपार्जन की अनेक सुविधाएँ उनके स्थानीय क्षेत्रों में ही उपलब्ध होंगे.
- आधुनिक सन्दर्भ में ग्राम एवं जनपदों के बीच एक सकारात्मक प्रतिस्पर्धा का वातावरण तैयार किया जाएगा जहां अनेक मापदंडों में उत्तम विकास के लिए पुरस्कार एवं सम्मान दिया जाए.
- आने वाले समय में इस दिशा में अग्रसर होता हुआ भारत विश्व की एक सांस्कृतिक एवं आर्थिक शक्ति बनकर उभरेगा एवं अन्य देशों के लिए विकास का एक नया मार्ग प्रशस्त करेगा.
भारतीय सभ्यता का स्मृति जागरण – नयी पीढ़ी की भूमिका
सभ्यता के ह्रास के आततायी समय में नयी पीढ़ी के प्रति हमारे कर्त्तव्य का बोध ही समाज को पूरी तरह से नष्ट होने से बचा सकता है। पुरानी पीढ़ी लाख चाह कर भी सभ्यता के मोहजाल से निर्लिप्त नहीं हो पा रही और ढलती उम्र के साथ बिगड़ते हालातों के बावजूद उसका इस लिप्तता से निकलने का मनोबल और भी गिरता जा रहा है। उसके अन्दर यह भ्रम भी गहरा पैठ जाता है की हर आने वाली पीढ़ी इसी सभ्यता को अपनाना चाहती है।
आज की नयी पीढ़ी में इस (उपभोक्तावादी) सभ्यता का मोह भंग होने के दो प्रमुख कारण हैं।
एक यह है की पिछले दो दशकों में इस सभ्यता के नाशकारी परिणाम हम सबके सामने हैं और जिससे मुंह मोड़ना नयी पीढ़ी के लिए मुश्किल हो रहा है. नष्ट होती सभ्यता अब उनका भरण पोषण करने में असक्षम है. युवा अवस्था में भी अनेक तरह के बुढापे में होने वाले रोगों के शिकार हो रहे है। वह स्वयं को बेबस स्थिति में पाते हैं और विकल्प की तलाश में जुट गए हैं।
दूसरी बात यह है की पिछले दशक में धरमपाल जी एवं अनेक कई विचारकों के शोध से अंग्रेजों के लिखे हुए दुष्कृत इतिहास से दबे हुए भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की उपयोगिता, उसकी समृद्धि एवं सौंदर्य के कई महत्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने आये है। सोशल मीडिया के माध्यम से पिछले कई वर्षों में इन छिपे हुए तथ्यों का पुरजोर प्रसार भी हुआ है और इस विषय पर अनेक चर्चा और गोष्ठियां हुई हैं। इस स्मृति जागरण के क्रम से युवाओं में अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति एक नए गौरव का अहसास है और इसे क्रियान्वित करने की दिशा में उनकी उर्जा का निवेश हो रहा है।
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के स्मृति जागरण के इस दौर में श्री रविन्द्र शर्मा (गुरुजी) का एक प्रमुख योगदान है. आन्ध्र प्रदेश के आदिलाबाद में कला आश्रम की स्थापना करने वाले गुरूजी को विभिन्न लोग कलाकार, कारीगर, कथाकार, इतिहासविद, शिक्षाविद, समाजशास्त्री, निपट भारतीयता के पैरोकार, अर्थशास्त्री, दार्शनिक के विभिन्न रूप से परिचित हैं। पिछले लगभग 25-30 वर्षों से आदिलाबाद के आस-पास के क्षेत्र में ही जिस पैनापन और विविध दृष्टि से उन्होंने संस्कृति, सभ्यता एवं परम्पराओं का गहन अध्ययन किया है और जिसका प्रतिरूप संपूर्ण भारत वर्ष में स्पष्ट दिखाई देता है, इसे ही वह लोगों को बता रहे हैं। इससे लोगों को अपने क्षेत्रों में ऐसी ही दृष्टि से अध्ययन करने की प्रेरणा भी मिलती है। समाज में लोगों की जीवनशैली, अर्थव्यवस्था, जातिगत मान्यताएं और व्यवहार, अन्य जातियों के अंतर्संबंध, भारतीय परम्पराएँ , सभ्यता, संस्कृति, सौंदर्य दृष्टि, संस्कार और अन्य ढेर सारी सामाजिक व्यवस्थाएं उनके अध्ययन विषय रहे हैं।
उनकी संवाद शैली में एक और जहां सहजता है , कहानी का ताना बुना है वहीँ एक गहरी और पैनी तर्क संगतता है जो आज की बहुत सारी गलत धारणाओं एवं मिथकों को सही करने में सहायक सिद्ध होती हैं। उनकी विशेष दृष्टि से भारतीय मानस को वे सारी विशेषताएं अत्यंत जीवंत प्रतीत होती हैं, जो कि श्री धरमपाल जी भारतीय चित्त, मानस और स्व-धर्म के बारे में अपने गहन शोध और अध्ययन से बता गए हैं।
स्मृति जागरण की यह क्रान्ति एक ओर जहां भारतीय समाज के मानस, सामर्थ्य, सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं के प्रति अतीत के गौरव का आत्म-विश्वास जगाती है , वहीँ दूसरी ओर भविष्य के भारत निर्माण की दिशा निर्धारित करने के लिए महत्वपूर्ण सूत्र और सिद्धांत भी प्रदान करती है। इस क्रान्ति की लहर को समझना, बढ़ाना और जन मानस को उत्प्रेरित करने की आवश्यकता है।
भारतीय जनता पार्टी – चुनौती और अवसर
आज देश भ्रष्टाचार एवं कुशासन के गहरे अँधेरे में डूबा हुआ है. ऐसी स्थिति में भारत की जनता विपक्ष में एक स्वस्थ एवं पुष्ट शासन का विकल्प तलाश रही है. (उपभोक्तावादी) सभ्यता के बिखराव के इस दौर में जनता के सामने एक राष्ट्रीय विकल्प चुनने की बहुत बड़ी चुनौती है. पिछले दशक के विभिन्न चुनावों के नतीजों से जो मुख्य बात सामने आती है। यह चुनौती आज एक राष्ट्रीय संकट में बदल गयी है।
स्वतंत्रता के करीबन सात दशकों के बाद भी देश के अधिकाँश लोग गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं. आज विभिन्न सरकारी एवं निष्पक्ष आंकडो के अनुसार औसतन 50% लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं. इतना ही नहीं, महंगाई, प्रदुषण और कुपोषण के दौर में यह अनुपात बढ़ता जा रहा है. हालात ऐसे हैं कि तथाकथित समृद्ध परिवार के बच्चे भी कुपोषण का शिकार हो रहे हैं.
शिक्षा स्तर में भी तेजी से गिरावट आ रही है. इस कारण से हम सही ढंग से अपने जीवन की प्राथमिकता नहीं तय कर पा रहे हैं. शुद्ध एवं पौष्टिक आहार, स्वच्छ एवं स्वास्थवर्धक वातावरण तथा बच्चों की सर्वोच्च शिक्षा में निवेश करने की बजाय हम ऊपरी आडम्बर एवं गैर जरूरत की वस्तुएँ जैसे आलीशान मकान, मोटर कार, मोबाइल फोन, टेलीविजन पर अनुचित व्यय कर रहे हैं.
ना सिर्फ इस सभ्यता के चपेट में आये हुए लोग खुद की जलाई हुई आग में झुलस रहे हैं , यह सभ्यता धरती पर रहने वाले समूचे जीव एवं प्राणी जगत के अस्तित्व को नाश करने पर आमदा है. आज भारत का एक बलशाली वर्ग, इस सभ्यता के रोग से पीड़ित इंडिया बन गया है. अंग्रेजी शासन के बगैर भी यह वर्ग ना सिर्फ अंग्रेजों के छल और प्रपंचों को अपनी विरासत बना बैठा है, बल्कि उसे और भी साध कर, उसने भारत के लोगों का जीना दूभर कर दिया है.
जब ऐसे व्यक्ति राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व पर बैठ जाते हैं एवं आम जनता और अधिकाँश युवा के विचारों एवं आकांक्षाओं से दूर होते जाते हैं। साधन-संपन्न एवं उपभोक्तावादी सभ्यता में लिप्त उनकी अपनी संतान, सम्बन्धी एवं नजदीकी लोग भी उनकी प्रतिध्वनि बनकर उनके भ्रम को गहरा बनाते हैं। आज की टेलेविज़न एवं अखबार भी इसी प्रतिध्वनि को बार बार दोहरा कर, इसी भ्रम को सत्य ठहराने के कारोबार में लगे हुए हैं। ये जितनी दूर तक सुन पाते हैं या महसूस कर पाते हैं, हर तरफ खरीद – फरोख्त का बाज़ार गरम है।
पदस्थ कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दल भाजपा को, उनकी आर्थिक नीतियों एवं आपसी सांठ -गाँठ होने के आधार पर, एक ही खेमे में खडा करके, देश की जनता कभी तो क्षेत्रीय दलों में अपना विकल्प तलाशती हैं या किसी नए दल की कल्पना करती है। परन्तु भारत की संसदीय प्रणाली और उसकी वर्त्तमान अवस्था में, यह प्रयास जाने अनजाने में राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के मतों को विभाजित कर, पदस्थ कांग्रेस सरकार को सशक्त करते हैं। क्षेत्रीय पार्टियों को दिया गया समर्थन, राज्य के स्तर पर तो अच्छे परिणाम लाता है, परन्तु इसी क्षेत्रीय बिखराव के भयावह परिणाम से कांग्रेस की सांझा सरकार केंद्र में शासन कर रही है.
पार्टी से पहले राष्ट्र को प्राथमिकता देने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के समक्ष यह भारी सुसंयोग है कि वह अपनी आर्थिक नीतियों (कई मायनों में मध्य प्रदेश के अपवाद को छोड़कर) एवं व्यवहार पर गहरा चिंतन करे और अपनी धुंधलाई हुई छवि को मांज कर लोगों के सामने खड़ी चुनौती का समाधान बने.
इस दिशा में किया गया एक सार्थक प्रयास भाजपा के लिए नयी संभावनाएं प्रस्तुत कर सकता है. आने वाले राष्ट्रीय चनाव में 175-200 सीटों में सफल होने के आंकड़ो से जूझती हुई भाजपा, इस नयी दिशा से 400 सीट की भारी बहुमत का लक्ष्य प्राप्त कर सकती है.
उपभोक्तावादी सभ्यता की अफीमची नींद से बिखरता और खोखलाता मानस अब जागना चाहता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं स्वदेशी जागरण मंच जैसी संस्थाओं के बरसों के अथक प्रयास से जब मानस चेतनशील होगा तो वह एक स्वस्थ एवं पुष्ट सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था के विकल्प से उत्प्रेरित होगा और पूरी तरह जागकर इस दिशा में कार्य करने लगेगा। इस चेतनशील अवस्था में देश, अनेक विभाजनात्मक विषयों एवं विवादों से ऊपर उठकर एक नयी व्यवस्था की मांग को 2014 में होने वाले लोक सभा चुनावों का मुख्य मुद्दा होने की भरपूर संभावना है। भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का संरक्षण एवं संवर्धन का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व के समक्ष, यह एक गहरी चुनौती प्रस्तुत करता है. इसी सत्यता से सम्मुख होकर भाजपा का नेतृत्व अपनी कथनी और करनी के अंतर को पाट सकता है और देश के लोगों का भरपूर विश्वास जीतने की उम्मीद कर सकता है । सबसे बड़ा प्रश्न यह है जिसपर चर्चा करने की आवश्यकता है।
- क्या भाजपा, (उपभोक्तावादी) सभ्यता की नीन्दियाई लिप्तता से जाग कर, इस बुनियादी परिवर्तन के लिए स्वयं तैयार है ?
नए दौर का आह्वान
आज, जब हम कारखाने की सभ्यता और इसके उपभोग के दुष्परिणामों से पूर्णतः अवगत हो चुके हैं, यह आवश्यक है की हम एक नए दौर की शुरुआत करें और इसकी सीख नयी पीढ़ी को दें.
वह एक दौर था जब हमारे माता पिता की पीढ़ी हमसे कारखाने की सभ्यता में सफल होने की उम्मीद करती थी. हमने भी इसके उपभोग का सुख लिया. अंग्रेजी सीखना उस दौर के लिए आवश्यक था क्योंकि कारखाने के विज्ञान का ज्ञान अंग्रेजी भाषा में ही सुगम था, अपितु हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में इस विज्ञान में इस सभ्यता की दौड़ में पिछड़ने का भय था. अंग्रेजी हमारी आवश्यकता भी थी और विवशता भी.
कारखाने की सभ्यता में एक चमक दमक भी थी, और तेज़ गति का एक आभास भी. कारखाने की सभ्यता के विनाशकारी परिणामों को जानने के बाद भी, इस सभ्यता के चमक -दमक और गति का प्रलोभन अचानक से ख़त्म हो जाएगा, ऐसा बिलकुल नहीं है. ऐसी कल्पना ना तो मेरी है ना ही मैं इस बात का आश्वासन दे सकता हूँ की बिना कठिन प्रयोगों के और इससे प्रेरित सामूहिक प्रयासों के ऐसा संभव है.
यह तय है कि जो प्रयोग वीर हैं, वे कोई ना कोई रास्ता ढूंढ ही निकालेंगे. और यह वर्ग एक नए दौर को शुरू करने के रोमांच का भरपूर आनंद भी लेगा. इन्हीं प्रयोगों से नए विकल्प उभरेंगे. जब इन विकल्पों में सामूहिक उर्जा का निवेश होगा, तो इस नए दौर की व्यवस्था भी खड़ी होने लगेगी. इस नए दौर का पूर्ण स्वरुप बता पाना तो मुश्किल है, पर इस विषय पर मेरे शोध से इसकी जो रूपरेखा उभरती दिख रही रही है, वह कुछ ऐसी है.
पर रूपरेखा बताने से पहले एक रोमांचकारी तथ्य: इस दौर में सफल होने के मूलमंत्र कारखाने की सभ्यता का सही अध्ययन और उसकी समीक्षा करने वालों को भी उतनी ही निपुणता से समझ आने की संभवता है, जितना की भारतीय एवं संभवतः अन्य प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं का सही अध्ययन एवं उसकी समीक्षा करने वालों को. एक तरह से यह पूर्व और पश्चिम का अनोखा मिलन होगा, जिसकी अब तक सिर्फ कल्पना की जाती रही है. पर यह सत्य कारखाने की सभ्यता या प्राचीन सभ्यताओं के रुढ़िवादियों से वंचित रहेगा, यह भी तय है.
सरल शब्दों में कहें तो, आने वाला दौर बड़े कारखानों को पीछे छोड़ता हुआ निपुण कारीगरी का होगा. कारीगरी इंजीनियरिंग, डिजाईन और कला का एक समाहित स्वरुप है. इसमें सौंदर्य और उपयोगिता दोनों की प्रचुरता है, जो कारखाने की उत्पाद में नहीं देखी जाती. इसमें उत्पादन और उपयोग का हर दृष्टि से समन्वय है. इसकी तकनीक में सर्वोच्च कोटि की रचनात्मकता तो है ही, इसके हर क्रम में मानवीय भाव है एवं सामाजिकता है. इसमें कारखाने की सभ्यता का ना तो शोषण है, और ना ही उसकी अमानवीयता. इसमें चीज़ों को प्रचार करके और मूर्ख बनाकर बेचने की विवशता नहीं होती. कारखाने की सभ्यता की आततायी प्रदुषण की तुलना में इसमें नाम मात्र खतरा भी नहीं रहता.
पते की बात बात यह है कि इसका अधिकतर ज्ञान अभी तक की जानकारी में संस्कृत, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध है. आने वाले समय में हमारे सामूहिक प्रयास से ही यह हमारे उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में एवं कार्यक्षेत्र में सम्मिलित हो सकेगा. इस नए दौर के लिए हमारी अगली पीढ़ी को तैयार करना हमारी सामाजिक एवं नैतिक जिम्मेवारी है.
मेरे लिए हिंदी और संस्कृत को सीखने का एक मजेदार वाकया है जो मैं आपके सामने रखना चाहूंगा. आज के दौर में इंजीनियरिंग करने के बावजूद मैंने आज तक कोई सॉफ्टवेर लैंग्वेज नहीं सीखी. क्योंकि जब भी मैं कोई सॉफ्टवेर भाषा सीखने जाता तो मुझे पता चलता की एक नए जनरेशन की भाषा प्रचलन में आ गयी है. सॉफ्टवेर कंपनी की न तो मोटी सैलरी का प्रलोभन मुझे भाया, न ही वातानुकूलित ऑफिस का आरामदेह सुख. इस्पात नगर में जन्मा और पला बढ़ा था, धातु विज्ञान की पढ़ाई की थी, तो इस्पात कारखाने में दो वर्ष काम करने का आनंद लिया.
इससे मैंने कोई सॉफ्टवेर भाषा तो नहीं सीखी पर अनुमान लगाना सीख गया. सॉफ्टवेर को छोड़ कर अंग्रेजी भाषा को गहराई में सीखने में लग गया. आगे चलके जब आई आई एम कलकत्ता से प्रबंधन करना था तो अंगेजी भी उपयोगी साबित हुआ, और अनुमान लगाने का कौशल भी.
ये पता नहीं था कि किसी दिन सॉफ्टवेर की सबसे वैज्ञानिक समझी जाने वाली भाषा संस्कृत सीखने में मेरी रूचि इतनी प्रबल होगी. संस्कृत-निष्ठ तत्सम हिंदी सीखना और उसे इस पोस्ट को लिखने के प्रयोग में लाना एक नए दौर का द्योतक है.
निवेदक
चन्द्र विकाश
बीटेक – आईआईटी खड़गपुर, एमबीए – आईआईएम कोलकाता
संयोजक – संतुलित एवं समुचित विकास संस्थान
B-507, रिवेरा टावर्स, लोखंडवाला टाउनशिप,
कांदिवली (ईस्ट), मुंबई, महाराष्ट्र – 400101
T: +91 22 2965 5705 M: +91 9582 94 1382
E : vishvaguru.bharat21@gmail.com

अब न विदेशपरस्त विपक्ष बचा
शेष रहा न कोई बहाना।
स्वदेशी के उर्ध्वगामी मार्ग पर
है हमें अब लौट आना।।
गौ आधारित कृषि हो
हो कृषि आधारित उद्यम।
बने भारत एक बार फिर से
सुन्दर समृद्ध और सक्षम।।
अंत्योदय तक साधन पहुंचे
शिक्षा स्वास्थ्य हो निःशुल्क।
स्वदेशी हो भोजन, भजन, भवन
भाषा भूषा स्वदेशी से सुसज्जित हो मुल्क।।
राम मंदिर, गौ एवं गंगा जैसे
सांस्कृतिक धरोहर हो संरक्षित।
हर क्षेत्र का समुचित विकाश हो
आजीवन हो आजीविका आरक्षित।।

ग्राम, गुरुकुल, नगर, अरण्य हों
संस्कृतमय हो जन जीवन।
वेद उपनिषद गीता की ज्ञानगंगा में
प्रकाशमय हो सबका मन।।
जल जंगल जमीन जानवर पर
हो स्थानीय ग्राम नगर समाज का अधिकार।
राजा प्रजा की सेवा करे
खुशहाल हो कारीगरी और कारोबार।।
वसुधैव कुटुम्बकम के दर्शन से
पर्यावरण संकट से हम जाएँ उबर।
विश्वगुरु भारत से सम्मान हो
सोने की चिड़िया के उग आएं पर।।
स्वदेशी का विश्व प्रतिमान बने भारत
सहेज कर अपनी थाती।
होली हो फूलों के खुशबुदार रंगों से
दीपावली हो संग दीया और बाती।।
२३ मई २०१९
* टिप्पणी:
(आसुरी शक्तियां पूरे विश्व पर हावी हो चुकी हैं। नेशनलिज़्म की आड़ में ये वैसे ही आतंक और लूटपाट मचा रहे हैं जैसा पहले रिलिजन की आड़ में हुआ था। (1) जाहिर है कि हिंदू मान्यताओं, जीवनचर्या एवं सनातन बिंदुओं को ताक में रखकर, भारत में हिंदुत्ववाद नामक नेशनल–इज़्म एवं हिंदू–इज़्म नामक रिलिजन की आड़ में आसुरी शक्तियां वही वीभत्सता कर रही हैं जो अमेरिका, ब्राज़ील, चीन और रूस में हो रहा है। इसके निदान के लिए हमें तीन स्तर पर अपनी प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत कर इस घातक कैंसर जैसी बीमारी से निरोग होना है:
पहला यह कि हम इनके वास्तविक चरित्र को समझते हुए इन्हें मान्यता देना बंद कर दें। इनको न तो कर दें न ही इनसे कोई सुविधाएं लें। जैसे कैंसर कोशिकाओं को उपवास करके एवं एल्कलाइन देसी पद्धति जैसे निम्बू पानी, छाछ, हरी सब्जियां, अंकुरित अनाज इत्यादि से भूखा रखकर मारा जा सकता है, वैसे हम नेशनलिज़्म-रिलिजन नामक मधु-कैटभ को नेस्तनाबूद कर सकते हैं।
दूसरा की स्थानीय स्वदेशी स्वराज को सुदृढ़ करें जिसमें आसुरी संसाधनों जैसे पेट्रोलियम, कोयला, प्रदूषणकारी कारखाने इत्यादि के स्थानीय देसी विकल्पों को पुनर्जागृत करें। सुविधा-भोग के नाम पर आलस्य-प्रमाद से हमें रोगी, कमजोर और लाचार करने वाली आदतों एवं व्यसनों (2) की इस स्वदेशी यज्ञ में आहुति दें एवं स्वस्थ और खुशहाल जीवन को उत्सव बनाएं।
तीसरा यह की वैश्विक समस्याओं के निदान के लिए विश्वगुरु भारत अभियान से जुड़ें। इसके अंतर्गत वसुधैव कुटुम्बकम के दर्शन से GAIA Earth Parliament की नींव प्राकृतिक सम्पदाओं से समृद्ध झारखंड क्षेत्र में रखी जा रही है। इसके अंतर्गत दुनिया के समस्त स्वदेशी समुदाय-राष्ट्र या जनपदों का प्रतिनिधित्व होगा जिनका क्षेत्रफल human-स्केल का होगा यानी 100 किलोमीटर के दायरे में होगा जहाँ तक कि सुगमता से पेट्रोलियम पर आधारित प्रदूषणकारी वाहनों के बिना आधे दिन में पहुँचा जा सकता है। विश्व को पर्यावरण संकट से उबारने को प्रतिबद्ध, इस वैश्विक सामाजिक-राजनीतिक संस्था के विज़न को इस गीत में दर्शाया गया है।)
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विश्वगुरु भारत
दुनिया बदल रही है
नया अंजाम चाहिए
हर ग्राम और नगर स्वराज हो
दूसरा स्वतंत्रता संग्राम चाहिए।
प्रदूषण से उबलती धरती पर
जीने का इंतज़ाम चाहिए
लालची दहशतगर्द भेड़ियों का खात्मा हो
इंकलाब ऐसा सरेआम चाहिए।
लंदन पेरिस से लेकर हांगकांग शांघाई तक
प्रदूषणकारी उपभोक्तावाद से इज़ाद चाहिए
हर पीढ़ी को आज़ादी और इंसाफ मिले
भारतीय जीवनशैली का समाधान चाहिए।
हर मानव धरती माँ की संतान है
हमें विश्व नागरिक का सम्मान चाहिए
टुकड़े टुकड़े में बंटे राष्ट्रवादियों को
लेना यह संज्ञान चाहिए।
परंपरा और आधुनिकता के अंतर्द्वंद्व में उलझे भारत को
विश्वगुरु का विस्मृत पहचान चाहिए
युग परिवर्तन के इस संधि काल में
फिर से कोई कृष्ण या कोई राम चाहिए।
नवंबर २०१९
* टिप्पणी:
(भारत विविधताओं से भरा देश तो है ही। यह आज कई विडम्बनाओं से भी भरा है। उनमें से एक विडंबना जो आज नागरिक संशोधन बिल के विमर्श से खुलकर सामने आ रही है वह यह है कि आखिर हिंदुस्तानी इंडियन और हिन्दू इतने अलग कैसे? क्या वसुधैव कुटुम्बकम का वृहद भाव रखने वाले भारतीय समाज को मजहब मत पंथ सम्प्रदाय के आधार पर नागरिकता के संकीर्ण दायरे में बांटना उचित है? क्या प्रकृति-प्रदत्त व्यवस्था को पुनर्जीवित कर सबके लिए स्वस्थ, खुशहाल, समृद्ध एवं शांतिपूर्ण वातावरण तैयार करना हमारा सर्वोपरि लक्ष्य नहीं होना चाहिए? क्या विश्वगुरु भारत विश्व के किसी भी भाग में व्यक्ति अथवा समुदाय के साथ होने वाले अन्याय या अत्याचार का उसी स्थान पर यथोचित न्याय दिला सकने के लिए प्रतिबद्ध है?
जब परिवार और स्थानीय समाज बचेगा तभी व्यक्ति का अस्तित्व सुरक्षित एवं संवर्धित हो सकता है. जब देश सुरक्षित एवं समृद्ध होगा तभी परिवार बचेगा. सामान्यतः आधुनिक काल में हमारी यह मान्यता रही है. इस दृष्टि से व्यक्तिवाद एवं संकीर्ण राष्ट्रवाद के दौर में हमारा ध्यान परिवार, स्थानीय समाज और देश तक सीमित रहा है.
परन्तु गौर से देखें तो वास्तविकता कुछ और ही दर्शाती है. विश्व के अनेक देशों के विचारकों से पिछले एक दशक से हो रही बातचीत के आधार पर यह पुष्ट है कि पर्यावरण संकट, परमाणु अस्त्र की होड़ एवं विभिन्न देशों के बीच बढ़ रहे आपसी तनाव, आतंकवाद एवं वैमनस्य से विनाशकारी परमाणु युद्ध का संकट एवं अंधाधुंध प्रदूषणकारी औद्योगीकरण में सनी हुयी आर्थिक साम्राज्यवाद की होड़ में जल, जंगल, जमीन जन एवं जानवर के संसाधनों का तेजी से विलोप आज और आने वाले समय के लिए स्पष्ट संकेत कर रहा है. यदि विश्व सुरक्षित, परस्पर सुव्यवस्थित एवं शांत होगा तभी स्थानीय समाज भी सुरक्षित, सुखी और संपन्न रह सकता है. ताजे घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि विश्व की सबसे शक्तिशाली सामरिक शक्तियों – अमेरिका, रूस एवं चीन के आपसी संबंधों में उबाल आ रहा है तथा सीरिया, इराक, उत्तरी कोरिया जैसे कई क्षेत्रों में तनाव की स्थिति बनी हुयी है.
ऐसी स्थिति में सदियों से विश्व गुरु का दायित्व उठाने वाले भारत का क्या दायित्व है?
स्पष्ट है कि १९४७ में भारत की अधकचरी स्वतंत्रता एवं थोपे-थापे गए उपनिवेशवादी संविधान की अनेक विसंगतियों एवं विरोधाभासों के बोझ से दबी, कुचली और अधमरी-सी आधुनिक इंडिया नामक राष्ट्र-राज्य का नेतृत्व एवं इसकी भ्रष्ट शासन प्रणाली भारत के विश्व गुरु के दायित्व के निर्वाहन करने में पूर्णतया असक्षम है. उलटे यह इंडिया सरकार, भारतीय समाज के चंद पूंजीपति वर्ग तथा विदेशी ताकतों के चंगुल में आकर कुपोषण, भुखमरी, आर्थिक विषमता, बेरोजगारी में विश्व समुदाय के सभी देशों में अंतिम पायदानों पर जूझते एवं शिक्षा, स्वास्थ्य एवं न्याय व्यवस्था के गिरते स्तर के बावजूद, अभी भी सामान्य जनता का शोषण कर रही है. इतना होने के बावजूद भी आज भी यह सच है कि भारत की मनीषा शक्ति जीवित है और इतनी भारी अंदरूनी चुनौतियों से जूझते हुए भी यह सदियों के ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर इसमें भारत एवं विश्व के दिशाहीन शासन तंत्र के शोधन में सक्षम है.)

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सह नहीं पाता जब स्वयं मानव
भूलकर सतत मानवीय संवेदनायें
बन जाता है भस्मासुर रुपी दानव।
भौतिकवाद से प्राप्त भोग-विलास को
समझ बैठता है तरक्की के मापदंड
खो जाता है अंधी दौड़ और आडम्बर में
छा जाता है उसपर तमस प्रचंड।
बाँध देता है नदियों के अविरल प्रवाह को
काट डालता है पहाड़ और जंगल
“मुफ्त” बिजली और नल से पानी के लालच में
लहुलूहान कर देता है धरती का आँचल।
मल – मूत्र विसर्जित करता जल में
बना देता है तालाब-नदियों को गंदा नाला
खड़े कर देता है कूड़े-करकट के पहाड़
नीले समुन्दर को प्लास्टिक-तेल से कर देता काला।
एयर-कंडिशन्ड मोटरकार और बंद कमरों में कैद
घुटता सिमटता जर्जर होता उसका शरीर
मधुमेह एवं ह्रदय रोग के चपेट में
पैसे और शोहरत की सफलता बन जाती है जंजीर।
कमज़ोर पड़ने लगती है प्रतिरोधक क्षमता
हल्का पड़ने लगता है नसों का बल
सुस्त हो जाते हैं दिलो-दिमाग के पुर्जे
थोड़ा सा संक्रमण भी उन्हें जाता है निगल।
कहीं दूर छूट जाते हैं रिश्ते-नाते
लग जाता है निकट-दृष्टि का रोग
जब भय और भ्रम घेर लेते हैं उसे
प्रकृति को करने पड़ते हैं नए प्रयोग।
सह-जीवन का सबक सीखाने
वहीँ से शुरू करती है संक्रमण
भोग-विलास अहंकार में लिप्त महानगर
जो पूरे विश्व पर करते हैं अतिक्रमण।
नहीं छोड़ते अपने बच्चों का भी भविष्य
मेहनतकश मज़दूरों का करते हैं शोषण
मौत के सौदागर बने इन नरभक्षियों के
मुनाफे की बलि चढ़ते भूखमरी और कुपोषण।
महामारी में भी ये आततायी चलते हैं अपनी चाल
मास्क टेस्टिंग और वैक्सीन के खड़े करते जंजाल
संक्रमण के खतरों को बढ़ा-चढ़ाकर
“लॉकडाउन” से कर देते जन-जीवन बदहाल।

सभी मौतों को करुणावायरस से हुयी बताते
“बिग डाटा” का फैलाते हैं ऐसा भंवरजाल
स्वीडन के हर्ड इम्युनिटी में सफलता की बात छिपाते
भ्रम एवं भय के कहर से बढ़ता मौत का भूचाल।
एलॉपथी दवाओं, आईसीयू और वेंटिलेटर से बढ़ती मौतें
आयुर्वेद होमियोपैथ से कारगर इलाज को करते नज़रअंदाज़
“बिग फार्मा” और “बिग बिल” जैसे भेड़ की खाल में भेड़िये
अपना माल बेचने में लगे हैं ये धूर्त चालबाज़।
हाँ, हो रही हैं दुनिया भर में हज़ारों मौतें
पर नहीं है इनमें करुणावायरस का कोई हाथ
जो पहले से ही जर्जर और बीमार थे
संक्रमण ने नहीं निभाया उनका साथ।
इसके लिए जिम्मेदार प्रकृति नहीं हो सकती
वे नरभक्षी हैं जो कर रहे मौत का व्यापार
घोल रहे हमारे भोजन में केमिकल व् कीटनाशकों का ज़हर
वायु एवं जल प्रदूषण पर टिका है इनका कारोबार।
कर रहे बीजों का जेनेटिक मॉडिफिकेशन
बेच रहे खाद्य-पेय के नाम पर जंक
औद्योगिक मांस, सफ़ेद चीनी और रिफाइंड तेल
करुणावायरस के माथे लिख रहे ये अपने कलंक।
फिर क्षीण प्रतिरोधक शक्ति नहीं झेल पाती महामारी
ये इज़ाद करते हैं अनेक प्रकार के वैक्सीनेशन
और भी कमज़ोर होने लगती है प्रतिरोधक क्षमता
निर्भर जीवनपर्यन्त एलॉपथी दवा और होस्पिटलाइजेशन।

जीवन नहीं है कोई सौदेबाज़ी या कोई व्यापार
प्रेम और विश्वास पर टिका है यह संसार
धरती माँ की गोद में बसा है हमारा जीवन
करुणा वायरस एक सन्देश है, यही है इसका सार।
करुणावायरस भस्म कर देगा छल और प्रपंच का खेल
क्यों कहा? अवतरित होगा – “ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या”
जब शुद्ध होंगे भोजन जल और हवा
सदैव स्मरण रहेगा – “पहला सुख निरोगी काया”।
* टिप्पणी:
(कोरोनावायरस संक्रमण एक विकट और टेढ़ी समस्या है लेकिन इसके लिए सबको घर में बंद करने की आवश्यकता नहीं है। सिर्फ संक्रमित लोगों को तब तक अलग रखने की जरूरत है जब तक की सही पौष्टिक खान-पान से उनकी प्रतिरोधक क्षमता दुरुस्त नहीं हो जाती. इसमें थोड़ा समय लग सकता है लेकिन ऐसा करना उनकी सुरक्षा के लिए आवश्यक है. इसके तहत धूम्रपान करने वाले, दमा, मधुमेह, रक्तचाप वगैरह से जूझ रहे बुजुर्गों पर ध्यान देना है। असल खतरा उन्हें है। बहुत सारे संक्रमित लोगों को एक साथ रखना भी ठीक नहीं है, लेकिन अगर ऐसा करते ही हैं तो उन्हें खुली जगह में रखें जहां धुप और ताज़ी हवा के सेवन से उनकी प्रतिरोधक क्षमता सुदृढ़ हो। हमारे एलोपैथिक अस्पतालों के एयर-कंडिशन्ड घुटनभरे वातावरण में कोरोनावायरस और अधिक फैलता है. इसके अलावा सफाई रखने के लिए एरोसोल से प्रचुर हॉस्पिटल के वातावरण में कोरोनावायरस ४-४ घंटे तक हवा में तैरता है जिससे अन्य मरीजों, चिकित्सक और नर्सिग स्टाफ को भी खतरा बढ़ जाता है।
इसके साथ-साथ मजबूत प्रतिरक्षा तंत्र वाले स्वस्थ लोगों को लॉकडाउन से बाहर रखा जाए ताकि वे पूरी क्षमता से स्वस्थ खान-पान की व्यवस्था में जुट जाएँ। लॉकडाउन में बंद लोगों के लिए भी एवं स्वस्थ लोगों के लिए भी प्रचुर एवं पौष्टिक खान-पान आवश्यक है ताकि प्रतिरोधक क्षमता पुष्ट रहे. सरकार को इसके लिए अध्यादेश लाकर आसपास के सभी खाली स्थानों एवं छतों पर सब्जी-भाजी उगाने एवं यथासंभव गाय-बकरी पालने की व्यवस्था बनानी चाहिए. इसके साथ साथ स्थानीय स्वावलम्बन एवं समृद्धि को बढ़ावा देने के लिए मोटरगाड़ियों को हटाकर जल संचय, कचड़े से कंचन तक अभियान, मल -मूत्र से जल प्रदुषण को रोकने के लिए पारम्परिक हग-हटती या मृदा शौचालय जैसे प्रयोगों को बढ़ावा देने के लिए नए सिरे से स्वस्थ एवं समृद्ध भारत अभियान शुरू करना चाहिए. तभी आने वाले समय में अन्य वायरस के लिए भी हमारी प्रतिरोधक क्षमता सुदृढ़ हो सकेगी. इसमें आर्कटिक क्षेत्र एवं हिमालय क्षेत्र में पर्माफ्रॉस्ट एवं ग्लेशियर के नीचे दबे परमाफ्रॉस्ट वायरस हैं जिनका जेनेटिक स्ट्रक्चर कोरोनावायरस से भी कहीं भिन्न और मानव जाती के लिए अधिक खतरनाक है.
धीरे-धीरे जैसे अन्य लोगों की प्रतिरोधक क्षमता दुरुस्त हो जाए, फिर उन्हें भी लॉकडाउन से बाहर किया जा सकेगा. इस परिष्कृत विधि को स्वीडन एवं अन्य विकसित देशों की तर्ज पर इंटेलीजेंट या स्ट्रैटजिक लाकडाउन कह सकते हैं।
15 अप्रैल, 2020 से #कोरोनावायरस संक्रमण की रोकथाम के लिए #इंटेलीजेंटलॉकडाउन का धर्म आधारित दृष्टिकोण
- सभी कोविद -19 रोगियों को एयर आयुर्वेदिक मोहल्ला क्लीनिक खोलने के लिए शिफ्ट करें जहां उन्हें अपनी प्रतिरक्षा को बढ़ावा देने के लिए ताजी हवा और धूप और पर्याप्त पोषण मिलता है। उन्हें बचाने का यही एकमात्र तरीका है। उनके क्लॉस्ट्रोफोबिक एरोसोल-भारी वातानुकूलित वातावरण वाले एलोपैथिक अस्पताल न केवल रोगियों को बल्कि स्वस्थ डॉक्टरों और नर्सों को भी उनके उच्च वायरल लोड वातावरण से मार रहे हैं।
- हमें बस अपने घरों या सामुदायिक केंद्रों में एक सामाजिक “कम वायरल लोड” संक्रमण से गंभीर / गंभीर बीमारी की उच्च संभावना के साथ कॉमरेड – मधुमेह, धूम्रपान करने वालों, शराबियों आदि को अलग करने की आवश्यकता है। जैसे चीन ने किया, हमें अपने पारंपरिक आयुर्वेद पर भरोसा करना चाहिए। एलोपैथिक अस्पतालों के टीकाकरण और टीकाकरण में पश्चिमी लोग मर रहे हैं। मैंने अब तक सभी चिकित्सा निष्कर्षों को बड़े पैमाने पर देखा है।
- स्थानीयकृत बहुतायत और परिपत्र अर्थव्यवस्था के लिए लेस मॉडल अगले 9 महीनों में एक बार फिर से भारत को चिडिया बना देगा। यह न केवल अपनी आवश्यकताओं और क्षमताओं के अनुसार सभी के लिए प्रचुर आजीविका के अवसरों (वेतनभोगी नौकरियों) का निर्माण करेगा, यह भारत को एक बार फिर एक विचारशील नेता या विश्वगुरु के रूप में प्रतिष्ठित करेगा। यह सभी के लिए स्वास्थ्य और कल्याण पर ध्यान केंद्रित करेगा, ऐश्वर्य और वैभव लेकिन कोई अपव्यय और कोई सकल घरेलू उत्पाद नहीं।
- जैसे मोदी जी योग और आयुर्वेद को बढ़ावा दे रहे हैं, वैसे ही उन्हें कामसूत्र के लिए भी वैश्विक राजदूत बनना चाहिए। उन्हें विवाहित जोड़ों को सलाह देना चाहिए कि वे कठिन कामसूत्र पदों की कोशिश करें जो उन्हें एक साथ करीब लाएगा, पारिवारिक जीवन में सुधार लाएगा और उनके स्वास्थ्य, फिटनेस और प्रतिरक्षा को बढ़ावा देगा। इससे परीक्षण निरर्थक हो जाएगा।
खेल, संगीत, नृत्य – विशेष रूप से शास्त्रीय रूप – को युवाओं और बच्चों को मोबाइल फोन से दूर करने और उनके स्वास्थ्य, फिटनेस और प्रतिरक्षा को बढ़ावा देने के लिए बढ़ावा देना चाहिए। इसी तरह, जैसा कि आप साबित कर चुके हैं कि बुढ़ापे का मतलब बीमारी नहीं है। अच्छी जीवनशैली प्रथाओं के साथ, हम मानव जीवन काल के 120 वर्षों तक भी अच्छी प्रतिरक्षा, स्वास्थ्य और फिटनेस रख सकते हैं। १० मई तक जब कोरोनावायरस महामारी की रोकथाम के नाम पर हो रहा छल-प्रपंच और भी गहराता गया, तथ्यों और संवेदनाओं को इन पंक्तिओं में पिरोने का प्रयास किया गया है.)
मई २०२०