भारत एक प्राचीन साझी संस्कृति एवं सभ्यता है. मानव की उत्पत्ति इसी भूभाग से होती है जिसे आगे चलकर हिन्दुस्तान भी कहा जाता है. हिन्दुस्तान यानी हिन्दुओं की भूमि। हि यानी माया + इंदु यानी चन्द्रमा जो मन का अधिदैव है. इस दृष्टि से हिन्दू शब्द मानव का ही पर्यायवाची है. इसी तरह से देखें तो बोस इंडिकस कही जाने वाली गौ माता की उत्पत्ति भी इसी भूभाग से होती है जो इंडिकस शब्द से स्पष्ट है.
हिन्दू सनातन धर्म पर आधारित जीवनचर्या का पालन करते हैं जिससे उन्हें भौतिक उत्कर्ष भी प्राप्त होता है एवं इससे उनमें आध्यात्मिक चेतना का भी विकाश होता है. काल के प्रवाह में जब मानव इस भूभाग – जिसमें वर्त्तमान अफ्रीका एवं ऑस्ट्रेलिया भी सम्मिलित थे – यहां से निकलता है इसी सनातन वटवृक्ष से जैसे अनेक शाखाएं निकलती हैं. बौद्ध जैन शिंटो यहूदी ईसाई एवं इस्लाम इसी विशाल वटवृक्ष की विविध शाखाएं हैं. ऐसे में भले ही हम अपनी पहचान से अपने हिन्दू मूल को विस्मृत कर चुके हैं, हम सब इस सत्य से अवगत होते हैं की हम सभी समस्त मानव जाति के पूर्वज हिन्दू थे एवं समाज के अंतर्द्वंद्व से ही समय समय पर विविध मत, रिलिजन, मजहब, पंथ एवं सम्प्रदाय का सृजन होता है और वे उसी सनातन प्रवाह में फिर से विसर्जित भी हो जाते हैं. ऐसे में सिर्फ पूर्वजों के भारत के कटे-छंटे भूभाग में जन्में होने और उनके सरकारी कागज़ उपलब्ध से हिंदुस्तान यानी इंडिया की नागरिकता को जोड़ना एक भारी विसंगति है जिसका हम सबको प्रतिकार करना चाहिए।
हिन्दुस्तान भारत या इंडिया का क़ानून आज कई विसंगतियों से भरा पड़ा है. आज भारत के ब्रिटिश आधिपत्य से स्वतंत्रता के सात दशक में पश्चात उस कालखंड में निर्मित भारतीय संविधान के समीक्षा की आवश्यकता है. जिसमें इन विसंगतियों पर विचार-विमर्श किया जा सके एवं आज की परिस्थिति के अनुसार संविधान में संशोधन किया जा सके. इस आलेख में इनमें से कुछ विसंगतियों को चिन्हित किया है.
आज के हिन्दू समाज में भाई भाई से अलग होकर कुटुंब को तोड़ता है तो भारत का मौजूदा क़ानून इसे स्वीकार करता है. क्या यह हिन्दू परंपरा के विरुद्ध नहीं है? पति और पत्नी अलग होना चाहे तो डाइवोर्स या तलाक की कोई हिन्दू परम्परा न होते हुए भी इसे हिन्दुओं पर थोपा जाता है. दो से अधिक बच्चे या बहुविवाह को गलत ठहराया जाता है जो भी हिन्दू परंपरा का खंडन है. व्यवहारिक एवं वैज्ञानिक दृष्टी से भी देखें तो प्रकृति-प्रदत्त पारम्परिक हिन्दू व्यवस्था के प्रतिकार का ही परिणाम है की आज पृथ्वी का पर्यावरण संतुलन नष्ट हो रहा है. छोटे परिवारों का इकोलॉजिकल फुटप्रिंट यानी पर्यावरण पर बोझ अधिक होता है.
कुटुंब परिवार में इकॉनमी ऑफ़ स्केल एवं डिवीज़न ऑफ़ लेबर के आधार पर वे पर्यावरण पर बोझ बनने की बजाये अन्य समस्त जीव-जंतु, वनस्पति एवं नदी-पहाड़ की तरह प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन में सहायक होते हैं न की बाधक एवं विनाशक। परन्तु कुटुंब को तोड़कर अधिक से अधिक प्रदूषणकारी माल बेचने और मुनाफाखोरी करने वाले विघटनकारी विज्ञापनों या दुष्प्रचार फैलाने वालों के लिए कभी “टुकड़े-टुकड़े गैंग” या “अर्बन नक्सल” जैसी संज्ञा का उपयोग क्यों नहीं होता है?
यहां तक की किसी नगरों की “प्राइवेट गेटेड कम्युनिटी” की नागरिक समिति भी इकट्ठे नहीं रह पाती और छोटे छोटे टुकड़ों में बँट जाती है. फिर वे सार्वजनिक सड़क को घेर कर अपने गेट और प्राइवेट गार्ड भी बिठा देते हैं जिससे आने जाने वाले राहगीरों की अनावश्यक प्रताड़ना होती है जिन्हें लम्बी दूरी का मार्ग लेना पड़ता है. इन गेटेड कम्युनिटी के चारों तरफ ऊंची कंक्रीट की दीवारें कड़ी हो जाती हैं जिससे न तो बारिश का जल कुएं तालाब या भूगर्भ में इकठ्ठा हो सकता है, न ही हवा का प्रवाह बन पाता है. जलवायु में होने वाले अवरोधों के दुष्प्रभाव से वातावरण प्रतिकूल होता है. गर्मी के दिनों में गर्मी अधिक होती है और सर्दियों में ठण्ड बढ़ जाती है.
परन्तु ग्राम नगर एवं जनपद स्वराज की हिन्दू परंपरा जिसे राष्ट्र कहा गया है, उसे नष्ट कर आसुरी शहरीकरण एवं औद्योगिकरण पर आधारित वृहद् भूभाग को “राष्ट्र” कहा जा रहा है जिसके प्रशासनिक संचालन के लिए प्रदूषणकारी हवाई जहाज, रेलगाड़ी या मोटरगाड़ी की यात्रा अनिवार्य हो जाती है. इसके लिए बड़े कारखाने के सस्ते एवं घटिया प्रदूषणकारी उत्पाद आवश्यक हो जाते हैं क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों के आसुरी दोहन से सबका साथ सबका विकाश भी एक कोरी कल्पना रहकर सिमट जाती है. फिर शुरू होता है शोषणकारी एवं दमनकारी नीतियों का सिलसिला जिसमें समाज के किसी ख़ास वर्ग को साड़ी समस्याओं के लिए जिम्मेवार ठहराते हुए उनके प्रति नफरतगर्दी और दहशतगर्दी का माहौल बनाया जाता है. नागरिक संशोधन क़ानून इसी शैतानी सोच की उपज है जिसके निशाने पर सिर्फ मुस्लिम ही नहीं, समाज के वे सभी शोषित एवं वंचित वर्ग हैं जिनके पास दशकों पुराने कागज़ों को सहेज कर रखने के लिए स्थायी घर हैं न ही सुरक्षित लॉकर। सबका साथ सबका विकाश एवं सबका विश्वास का नारा देकर वोट बटोरने वाले राजनीतिक तबके का यह हम सबके साथ विश्वासघात है.
जो लोग ऐसे वृहद् क्षेत्र को जबरन राष्ट्र कह रहे हैं उन्हें न तो हिन्दू संस्कृति, सभ्यता एवं परम्परा की समझ है न वे समझना चाहते हैं. न ही उन्हें सनातन मानबिन्दुओं पर आधारित राष्ट्र की सही परिभाषा ज्ञात है. इस्लामी और ब्रिटिश आक्रांताओं के नक़्शे कदम पर चलते हुए उनकी मंशा सिर्फ और सिर्फ सत्ता हथियाना है.
“वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहाँ गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। कालांतर में, उनमें कुछ दोष उत्पन्न हुए और राजनीतिक व्यवस्था का झुकाव राजतंत्र की तरफ होने लगा। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। कुछ स्थानों पर मूलतः राजतंत्र था, जो बाद में गणतंत्र में परिवर्तित हुआ। महाभारत के सभा पर्व में अर्जुन द्वारा अनेक गणराज्यों को जीतकर उन्हें कर देने वाले राज्य बनाने की बात आई है। महाभारत में गणराज्यों की व्यवस्था की भी विशद विवेचना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि जैसे गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। उनसे भी पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। आगे चलकर यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी क्षुदक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया।” (१)
कहीं भी पूरे भारत खंड को एक राष्ट्र की संज्ञा नहीं दी गयी न ही हमेशा से भारत किसी एक राज्य के अधीन रहा . परिस्थिति के अनुसार राज्यों की सीमायें बदलती रहीं शासक भी बदलते रहे। राष्ट्र की परिभाषा पर एक अन्य परिचर्चा (२) से भी स्पष्ट है की अधिकतर लोगों के समझ में राष्ट्र की परिभाषा को लेकर स्पष्टता है न ही “हिंदू राष्ट्र” का ढिंढोरा पीटने वाले समूहों द्वारा ऐसा कोई सार्थक प्रयास किया गया है. नहीं तो इतनी भारी भूल संभव नहीं होती।
ऐसे में जब कोई भी जनपद या राज्य एक बड़े संघ से स्वतंत्र होना चाहता है इसकी अनुमति भारत का क़ानून यदि नहीं देता तो क्या आपको नहीं लगता की उस क़ानून को बदल देने की आवश्यकता है? मैं ऐसी स्थानीय स्वतंत्रता की पैरोकारी सिर्फ भारत के लिए ही नहीं समूचे विश्व के लिए कर रहा हूँ. इसके साथ साथ इन सभी स्थानीय जनपद राष्ट्रों के परस्पर सहयोग एवं समन्वय के लिए एक नयी वैश्विक संस्था – वसुधैव कुटुंब का भी प्रस्ताव रख रहा हूँ. विश्वगुरु भारत अभियान के तहत इस समग्र योजना को क्रियान्वित करने का भी प्रस्ताव है. इसकी घोषणा २ फरवरी २०२० को झारखण्ड की राजधानी रांची से की जायेगी।
उल्लेख:
(१) http://rashtra-kinkar.blogspot.com/2014/01/blog-post_26.html – हमारे ग्रन्थों में राष्ट्र और गणतंत्र की अवधारणा—-डॉ. विनोद बब्बर
(२) https://www.pravakta.com/what-is-nation/ – परिचर्चा : राष्ट्र क्या है ?